ब्रज की लठमार होली

होली के जितने रंग हैं उससे ज्यादा उसे मनाने के ढंग हैं। ब्रज में होली की बात की जाए तो इसका रंग ही निराला है। यहां पर फूलों के होली भी खेली जाती है तो लठमार होली का भी एक अलग ही अंदाज है, लड्डू की होली से लेकर गुलाल की होली, यहां पर सारे होली के रंग अलग ही हैं। ब्रज की होली कई दिन पहले शुरू हो जाती हैं, उमंग और जोश यहां पर एक अलग ही स्तर पर देखने को मिलता है। यहां पर दूर-दूर से लोग होली खेलने के लिए आते हैं। आइए जानते हैं ब्रज की होली का महत्व…

क्या है लठमार होली

ब्रज में 40 दिनो तक चलने वाली इस होली में पुरुष और महिलाएँ रंगों, गीतों, नृत्यों और लठमार खेल में लिप्त होते हैं। नंदगाँव से बरसाना आने वाले पुरुष महिलाओं को गाने गाकर उन्हें और उकसाते हैं। महिलाएँ गोपियों का काम करती हैं और मस्ती की धुन में पुरुषों पर लाठी बरसाती हैं। बरसाना की महिलाओं के हाथों लाठी खाने वाले पुरुषों को महिलाओं के कपड़े पहनना और सार्वजनिक रूप से नृत्य करना होता है। इस लठमार होली में चोट लगने से बचने के लिए पुरुष सुरक्षात्मक कवच (ढाल) पहने हुए आते हैं। इस लठमार होली में रंग सभी लोगों के उत्साह को और बढ़ाता है। इस खेल में शामिल होने वाले लोग श्रीकृष्ण और उनकी राधा को श्री कृष्ण और श्रीराधे बोलते हुए स्मरण करते हैं। बरसाना की होली के बाद अगले दिन दशमी को बरसाना की महिलाएं नंदगाँव आती हैं और यह उत्सव जारी रहता है।

ब्रज की लठमार होली
ब्रज की लठमार होली

उल्लेखनीय है कि लठमार होली का यह उत्सव बरसाना में राधा को समर्पित एकमात्र मन्दिर राधा रानी मंदिर में होता है। एक सप्ताह तक वृंदावन बांके बिहारी मंदिर में जारी रहने वाले इस विशेष त्यौहार में फूलों से बने रंग और गुलाल का इस्तेमाल किया जाता है। इस पवित्र त्यौहार पर बिहारीजी की मूर्ति को सफेद कपड़े पहने भक्तों द्वारा होली खेलने के लिए लाया जाता है। इसके बाद लोग पानी और रंगों के इस खेल में खो जाते हैं और संगीत के साथ नृत्य करते हैं। लोक व पौराणिक मान्यतानुसार ब्रज की विशेष मस्ती भरी होली होने का कारण यह है कि इसे कृष्ण और राधा के प्रेम से जोड़ कर देखा जाता है। लोक मान्यतानुसार बरसाना की लठमार होली भगवान कृष्ण के काल में उनके द्वारा की जाने वाली लीलाओं की पुनरावृत्ति जैसी है।

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कैसे मनाते हैं लठमार होली

मान्यता है कि श्रीकृष्ण अपने सखाओं के साथ इसी प्रकार कमर में फेंटा लगाए राधारानी तथा उनकी सखियों से होली खेलने पहुंच जाते थे, तथा उनके साथ हंसी- ठिठोली किया करते थे, जिस पर राधारानी तथा उनकी सखियां ग्वाल वालों पर डंडे बरसाया करती थीं। ऐसे में लाठी-डंडों की मार से बचने के लिए ग्वाल वृंद भी लाठी या ढ़ालों का प्रयोग किया करते थे, जो धीरे-धीरे होली की परंपरा बन गया। यही कारण है कि आज भी इस परंपरा का निर्वहन उसी रूप में किया जाता है। नाचते – झूमते गाते गांव में पहुंचने वाले लोगों को औरतें हाथ में ली हुई लाठियों से पीटना शुरू कर देती हैं और पुरुष स्वयं को बचाते भागते हैं। सब मारना पीटना हंसी -खुशी के वातावरण में होता है।

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